महाद्वीपीय विस्थापन सिद्धांत।


महाद्वीपीय विस्थापन सिद्धांत

प्रो. अल्फ्रेड वेगनर जर्मनी के एक प्रसिद्ध जलवायुवेत्ता तथा भूगर्भशास्त्री थे। प्राचीनकाल में जलवायु संबंधी परिवर्तनों को स्पष्ट करने के लिये उन्होंने विश्व के समस्त महाद्वीपों का गहन अध्ययन किया। इस अध्ययन में उन्होंने महाद्वीपों के बीच आश्चर्यजनक समानता देखी, अतः महासागरों की तली तथा महाद्वीपों की स्थिरता की प्रचलित संकल्पना को गलत साबित करने के लिये वेगनर ने महाद्वीपीय विस्थापन सिद्धांत का प्रतिपादन किया।

वेगनर का मानना था कि कार्बनिफेरस युग में समस्त स्थल भाग आपस में एक पिंड के रूप में जुड़े हुए थे
जिसमें स्थल भाग को वेगनर द्वारा पैंजिया नाम दिया गया। तथा पैंजिया के चारों ओर एक विशाल जलीय भाग था, जिसका नामकरण वेगनर ने पैंथालासा के रूप में किया। 

पैंजिया का उत्तरी भाग लारेशिया/अंगारालैंड तथा दक्षिणी भाग गोण्डवानालैंड के नाम से जाना गया। 

आगे चलकर पैंजिया का विभाजन हो गया तथा स्थल भाग एक-दूसरे से अलग हो गए, विभाजन दो दिशाओं में प्रवाह के रूप में हुआ। उत्तर की ओर या भूमध्यरेखा की ओर प्रवाह गुरुत्व बल तथा प्लवनशीलता बल के द्वारा हुआ, जबकि पश्चिम की ओर प्रवाह सूर्य तथा चंद्रमा के ज्वारीय बल के कारण हुआ माना गया है। परिणामस्वरूप महासागरों तथा महाद्वीपों का वर्तमान स्वरूप प्राप्त हुआ।

वेगनर के अनुसार,अटलांटिक महासागर के दोनों तटों पर भौगोलिक एकरूपता पाई जाती है। दोनों तट एक-दूसरे से मिलाए जा सकते हैं। जिस तरह किसी वस्तु के दो टुकड़े करके आपस मे पुनः मिलाया जा सकता है ठीक उसी प्रकार दक्षिणी अमेरिका के पूर्वी तट को दक्षिण अफ्रीका के गिनी खाड़ी तट से मिलाया जा सकता है। वेगनर ने इसे 'साम्य की स्थापना' (जिग- सा -फिट) का नाम दिया। 


भूगर्भिक प्रमाणों के आधार पर अटलांटिक महासागर के दोनों तटों के कैलिडोनियन तथा हर्सीनियन पर्वत क्रमों में समानता पाई जाती है। 

महासागर के दोनों तटों पर चट्टानों में पाए जाने वाले जीवावशेषों तथा वनस्पतियों के अवशेषों में भी पर्याप्त समानता पाई जाती है। 

स्कैण्डिनेविया के उत्तरी भाग में पाए जाने वाले लेमिंग नामक छोटे-छोटे जंतुओं की अधिक संख्या हो जाने पर वे पश्चिम की ओर भागते हैं परंतु, आगे स्थल न मिलने पर सागर में जलमग्न हो जाते हैं, इससे प्रमाणित होता है कि अतीत में जब स्थल भाग आपस में मिले थे, तो ये जंतु पश्चिम की ओर जाया करते थे। इसके साथ ही, ग्लोसोप्टरिस वनस्पति का भारत, दक्षिण अफ्रीका, फाकलैंड, ऑस्ट्रेलिया तथा अंटार्कटिका में पाया जाना भी यह प्रमाणित करता है कि कभी ये स्थल भाग आपस में संबद्ध थे। 

यद्यपि वेगनर का प्रारंभिक उद्देश्य अतीत में हुए जलवायु संबंधी परिवर्तनों का ही समाधान करना था परंतु समस्याओं के क्रम में वृद्धि होने से सिद्धांत बढ़ता चला गया और वेगनर कई गलतियाँ कर बैठे, उनके सिद्धांत में कुछ दोष पाए जाते है 

जैसे- वेगनर द्वारा प्रयुक्त बल महाद्वीपों के प्रवाह के लिये सर्वथा अनुपयुक्त है। 

चंद्रमा तथा सूर्य के ज्वारीय बल से महाद्वीपों में पश्चिम दिशा की ओर प्रवाह तभी हो सकता है जब वह वर्तमान ज्वारीय बल से 90 अरब गुना अधिक हो,यदि इतना बल महाद्वीपों के प्रवाह के समय रहा होता तो पृथ्वी का परिभ्रमण एक ही वर्ष में बंद हो गया होता। 

इसी तरह गुरुत्व बल के कारण महाद्वीपों में प्रवाह नहीं हो सकता, बल्कि इसके प्रभाव से स्थल भाग आपस में मिल गए होते।

अंध महासागर के दोनों तट भी पूर्णतः नहीं मिलाये जा सकते। दोनों तटों की भूगर्भिक बनावट हर जगह मेल नहीं खाती है। वेगनर ने महाद्वीपों के प्रवाह की दिशा तथा तिथि पर भी पूर्ण प्रकाश नहीं डाला है कि कार्बोनिफेरस युग से पहले पैंजिया किस बल पर स्थिर रहा था। 

अतः कहा जा सकता है कि उपर्युक्त विपरीत परिणामों के होते हुए भी वेगनर का सिद्धांत भौगोलिक शोध के क्षेत्र में अपना अलग स्थान रखता है तथा आगे आने वाले शोधों को दिशा-निर्देश प्रदान करता है।


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 पं० अमित कुमार शुक्ल "गर्ग"

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