हरित क्रांति से जुड़े महत्वपूर्ण परीक्षोपयोगी तथ्य



हरित क्रांति:-

क्रांति शब्द का तात्पर्य कुछ शब्दों में अभूतपूर्व अथवा अति तीव्र गति से होने वाला सुस्पष्ट सकारात्मक परिवर्तन होता है।

इस शब्द के साथ हरित (फसलों का प्रतीक) उपसर्ग लगाने से हरित क्रांति शब्द बना है।

अतः हरित क्रांति का तात्पर्य कम समय मे कृषिगत उत्पादन में तेजी से होने वाले अभूतपूर्व सकारात्मक परिवर्तन अथवा कृषि उन्नयन से है।

20 वी शताब्दी के उत्तरार्द्ध में कई देशों की कृषि में इस तरह का अभूतपूर्व सकारात्मक अर्थात क्रांतिकारी परिवर्तन हुआ है जिसे हरित क्रांति कहा जाता है।

हरित क्रांति को अंग्रेजी में Green Revolution कहा जाता है।

इस क्रांति का श्रेय / जनक प्रसिद्ध अमेरिकन विद्वान प्रो० नार्मन बोरलाग को जाता है।

हरित क्रांति के सूत्रधार उच्च उत्पादक प्रजातियों के बीजों की खोज एवं विकास के कारण नोबेल पुरस्कार विजेता प्रो० नार्मन बोरलाग को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हरित क्रांति का जनक माना जाता है।

भारत मे हरित क्रांति के जनक के रूप में डॉ० M.S. स्वामीनाथन को जाना जाता है।
इनका पूरा नाम मोनकोम्बू सम्बाशिवन स्वामीनाथन है।

भारत मे कृषि उत्पादन में वृद्धि के लिये 1960 से 1961 के वर्ष में 7 जिलों में नई कृषि तकनीक की शुरुआत की गई।

भारतीय कृषि में इस नवीन तकनीक का प्रयोग 1960-61 में ही प्रारम्भ हो चुका था।

सर्वप्रथम 1959 में फोर्ड फाउंडेशन में कृषि विशेषज्ञों एवं वैज्ञानिकों के एक दल को भारत मे आमन्त्रित क्या गया।

इस दल ने देश की कृषि दशाओं का अध्ययन करके अपना प्रतिवेदन अप्रैल 1959 में प्रस्तुत किया जो खाद्य की गम्भीर समस्या एवं उससे सम्बंधित सुझावों के विषय मे था।

इसके आधार पर भारत सरकार ने खाद्यानों के उत्पादन में वृद्धि करने के लिए सघन कृषि कार्यक्रम अपनाने का निश्चय किया।

इन कार्यक्रमों के नियोजन हेतु पुनः फोर्ड फाउंडेशन के कृषि विशेषज्ञों के एक दल को आमन्त्रित किया गया।

इस दल की सिफारिशों एवं सुझावों को स्वीकार करते हुए 1960-61 में देश के कुछ चुने हुए जिलों में एक मार्गदर्शी परियोजना (पायलट प्रोजेक्ट) के रूप में सघन कृषि विकास कार्यक्रम प्रारंभ किया गया।
यह कार्यक्रम प्रारंभ में तीन एवं फिर तेरह जिलों में लागू किया गया।

उत्तर प्रदेश में इसके लिये अलीगढ़ जिला चुना गया।

इस कार्यक्रम के अंतर्गत कृषकों को ऋण , बीज, उर्वरक, गहन यंत्र आदि उपलब्ध कराए गए ताकि गहन प्रयासों के माध्यम से देश मे अन्य भागों के लिए सघन कृषि का प्रारूप तैयार करने में सहायता मिल सके।


अधिक उपज देने वाली प्रजातियों के प्रथम बार इतने व्यापक क्षेत्र में प्रसार के कारण वास्तविक रूप में हरित क्रांति का प्रारंभ वर्ष 1966 से 1967 माना जाता है।

इसके पूर्व के दो वर्षों में सुखा के कारण ऐसा सम्भव नही हो सका था।

इसके बाद उच्च उत्पादकता किस्म प्रोग्राम HYVP तैयार की गई।

जिसे नई बीज उर्वरक व सिचाई प्रोग्राम कहा जाता है।

इसके अंतर्गत सर्वप्रथम गेंहू की नई किस्मों लरमा, रोजो, सोनार 64, कल्याना, तथा RB-18 की गेंहू की किस्में तथा TN-1, TR-8, TN-3, ADT-17 धान की नई किस्मे तैयार की गई।

इनके अच्छे किस्मों के लिये नाइट्रोजन, फास्फोरस की खादों के उत्पादन में वृद्धि की गई।



अधिक उपज देने वाली बीजो का कार्यक्रम केवल पांच फसलों गेहूं, चावल, मक्का, ज्वार और बाजरा के लिये अपनाया गया था।

उन्नतिशील बीजों का प्रयोग, रसायनिक खादों का प्रयोग, सिंचाई सुविधा का विकास ,कृषि यंत्रीकरण आदि हरित क्रांति के प्रमुख तत्व हैं।



हरित क्रांति की कमजोरियां

हरित क्रांति की उपलब्धियों को अस्वीकार नही किया जा सकता परन्तु यह भी सही है कि इनके लिये भारी आर्थिक ,सामाजिक और पर्यावरणीय लागत चुकानी पड़ रही है।

इस उपलब्धि में कई कमजोरियां है जिनके कारण यह आलोचना का विषय बनी हुई है।


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