प्रवाल भित्ति के विषय में विस्तृत एवं नवीन जानकारी।



प्रवाल एवं प्रवाल भित्तियां :-

प्रवाल व प्रवाल भित्तियों का निर्माण सागरीय जीव मूंगे या कोरल पॉलिप के अस्थिपंजरों के समेकन तथा संयोजन से होता है।

प्रवाल अथवा मूंगा एक प्रकार का सूक्ष्म कीड़ा होता है।

यह एक चुनास्त्रावी जीव है जो प्राणी विज्ञान की दृष्टि में एक मांसल जीव है तथा मधुमक्खी की तरह छत्ता बनाते हुए उसका विकास करता है।

ये जीव झुंड में रहते हैं एवं अपने शरीर के चारो तरफ़ चुने का आवरण निर्मित करते हैं जो इनके लिये अपना सुरक्षा कवच होता है।

छत्ते के निचले हिस्से में जीव मरते रहते हैं जबकि ऊपरी हिस्से में नए जीवो के जन्म एवं विकास की प्रक्रिया जारी रहती है।

जो प्रवाल मृत हो जाते हैं उनके जीवावशेषों में चुने तथा डोलोमाइट की अधिकता होती है।

प्रवाल के उत्पत्ति की परिस्थितिक दशायें:-

प्रवाल मुख्य रूप से उष्ण कटिबंधीय सागरों (30अंश उत्तर से 30 अंश दक्षिण) में पाए जाते हैं।

प्रवाल (मूंगे) के इन जीवों की उत्पत्ति तथा विकास जिन परिस्थितिक दशाओं में सम्भव है वे निम्नवत है:-

(1) तापमान
(2) समुद्र की गहराई
(3) लवणता
(4) स्वच्छ जल
(5) तरंगे एवं धाराएं
(6) मग्न तट एवं चबूतरे
(7) वर्षा
(8) ज्वार भाटा एवं हानिकर तरंगे।

(1) तापमान:- 
प्रवाल प्रायः उष्ण कटिबंधीय सागरों में विकसित होते है
क्योंकि इन्हें अपने अस्तित्व हेतु ऊंचा तापमान ( औसत रूप से 20 डिग्री सेंटीग्रेड से 21 डिग्री सेंटीग्रेड तक ) आवश्यक होता है यद्यपि प्रवाल के लिए अत्यधिक गर्म जल भी अनुपयुक्त होता है।

ठंडे जल में तो इनकी उत्पत्ति का प्रश्न ही नही उठता है।

(2) समुद्र की गहराई:-
प्रवाल की उत्पत्ति तथा विकास के लिये कैल्शियम एवं ऑक्सीजन आवश्यक है जो 60 मीटर से 75 मीटर (200-250 फिट) की गहराई तक सम्भव है। क्योकि अधिक गहराई पर सूर्य के प्रकाश एवं ऑक्सीजन का अभाव होता है।

इससे अधिक गहराई में प्रवाल जीवों के मर जाने की सम्भवना प्रबल होती है।

(3) लवणता:-
अत्यधिक समुद्री खारापन प्रवालों की उत्पत्ति एवं विकास हेतु हानिकारक होता है क्योंकि ऐसे जल में चूने का कार्बोनेट कम पाया जाता है जबकि प्रवाल जीवों का प्रमुख भोजन चुना ही है परंतु प्रवाल के विधिवत विकास के लिये 27 से 30 प्रति हजार तक सागरीय लवणता आवश्यक है।

(4) स्वच्छ जल:-
प्रवाल के विकास के लिये तलछट विहीन एवं साफ जल होना चाहिए।

यानी प्रवालों के विकास के लिये जल को अवसाद रहित होना चाहिये क्योंकि अवसादों के कारण प्रवाल का मुख बंद हो जाता है तथा वे मर जाते हैं।

पूर्ण स्वच्छ जल प्रवालों के विकास के लिये हानिकारक होता है यही कारण है कि नदियों के मुहाने के पास प्रवाल कम पाए जाते हैं।

(5) तरंगे एवं धाराएं:-
समुद्री धाराएं एवं तरंगे प्रवालों की उत्पत्ति के लिये उपयोगी हुआ करती है क्योंकि ये प्रवालों के लिये खाद्य सामग्री (भोजन) प्रवाहित करके लाती है।

(6) मग्न तट एवं चबूतरे:-
प्रवाल के विकास हेतु अंतः सागरीय चबूतरे आवश्यक होते हैं।

इन चबूतरों एवं स्थल के सहारे फैले मग्न तटों पर सरलता से प्रवाल का विकास हो पाता है।

यद्यपि लैगून के उथले तथा गन्दे जल में प्रवाल विकसित नही हो पाते हैं।

(7) वर्षा:-
हेडले महोदय के विचार से प्रवालों के लिये लवण रहित वर्षा का जल भी हानिकारक होता है।

यही कारण है कि भूमध्यरेखीय क्षेत्रों में अधिक वर्षा (लवण रहित जल) के फलस्वरूप प्रवाल तेजी से विकसित नही हो पाते।

(8) ज्वार भाटा एवं हानिकर तरंगे:-
ज्वार भाटा ,हानिकर तरंगे तथा तेज पवन प्रवाल के विकास में अवरोधक है क्योंकि इनसे प्रवालों के ऊपर रेत एवं तलछट जम जाती है फलस्वरूप प्रवाल मर जाते हैं।

प्रवाल भित्ति के प्रकार:-
(1) तटीय या अनुतटिय प्रवाल भित्ति
(2) अवरोधक प्रवाल भित्ति
(3) वलयाकार प्रवाल भित्ति



(1) तटीय या अनुतटीय प्रवाल भित्ति(Fringing Reef) :-

महाद्वीपीय या द्वीपीय तट से लगे प्रवाल भित्तियों को तटीय प्रवाल भित्ति कहते हैं|

(2) अवरोधक प्रवाल भित्ति (Barrier Reef) :-

यह प्रवाल भित्ति अन्य दोनों प्रकार की प्रवाल भित्तियों की तुलना में विशालतम होती है।

तट या द्वीप से दूर हटकर इनकी स्थिति इसकी प्रमुख विशेषता है।

इनका विकास तट के समानांतर होता है।

IMP:- विश्व की सबसे बड़ी प्रवाल भित्ति ऑस्ट्रेलिया के उत्तर पूर्वी तट पर स्थित ग्रेट- बैरियर रीफ है।

इसकी लम्बाई 1900 km से भी अधिक एवं चौड़ाई 160 km है।

(3) वलयाकार प्रवाल भित्ति (Atoll):-

इसकी आकृति घोड़े की नाल या अंगूठी के समान होती है।

इसकी स्थिति प्रायः द्वीप के चारो ओर या जलमग्न पठार के ऊपर होता है।




प्रवाल भित्तियों की उत्पत्ति के सिद्धांत:-

{1} भू अवतलन सिद्धान्त -     डार्विन
{2} स्थिर स्थल सिद्धान्त -       मर्रे
{3} हिमानी नियंत्रण सिद्धांत-   डेली

मर्रे के अलवा आगासीज, गार्डिनर, डेली का सिद्धांत स्थलखण्ड की स्थिरता पर आधारित है।

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 पं० अमित कुमार शुक्ल "गर्ग"

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