परीक्षाओं में भारत की मिट्टीयों से पूछे जाने वाले प्रश्न अब गलत नही होंगे।



        भारत की मिट्टीयां

भारत मे पाई जाने वाली चट्टानों की संरचना एवं भारत की जलवायु में पर्याप्त विविधता पाई जाती है।

अतः भारत की विभिन्न भौगोलिक क्षेत्रों में विभिन्न प्रकार की मिट्टीयों का विकास हुआ है।

भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद ने भारत की मिट्टीयों को 8 वर्गों में विभाजित किया है:-

(1)जलोढ़ मिट्टी
(2)काली मिट्टी
(3)लाल मिट्टी एवं पीली मिट्टी
(4)लेटेराइट मिट्टी
(5)पर्वतीय मिट्टी
(6)मरुस्थलीय मिट्टी
(7)लवणीय मिट्टी
(8)पीट या जैविक मिट्टी

तथ्य का स्त्रोत:- वैकल्पिक भूगोल + नोट्स + भारत का भूगोल जगदीश सिंह, आर सी तिवारी व अन्य।




{1}जलोढ़ मिट्टी:-

इस मिट्टी का विस्तार 7.7 लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में पाया जाता है जो भारत के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल का लगभग 22% है।

इस मिट्टी के दो प्रमुख क्षेत्र है:-

1 उत्तर का विशाल मैदान
2 तटवर्ती मैदान

इसके अलावा नदियों की घाटियों एवं डेल्टाई भाग में भी यह मिट्टी पाई जाती है।

इस मिट्टी का निर्माण नदियों द्वारा लाये गए तलछट के निक्षेपण से हुआ है।

इस प्रकार यह एक अक्षेत्रीय मिट्टी है।

इस मिट्टी में नाइट्रोजन , फास्फोरस एवं ह्यूमस की कमी होती है।

परन्तु इस मिट्टी में पोटाश एवं चूने का अंश पर्याप्त होता है।

इस मिट्टी को सामान्यतः तीन वर्गों में विभाजित किया जाता है:-







[A] तराई:-

यह भाभर के दक्षिण में पाया जाता है।

इसमे महीन कंकड़ों रेत चिकनी मिट्टी ,छोटे छोटे पत्थर आदि पाए जाते हैं।

गन्ने की कृषि के लिये उपयुक्त मिट्टी है।

[B] बांगर:-

यह पुरानी जलोढ़ मृदा है।

यह सतलज एवं गंगा के मैदान के ऊपरी भाग तथा नदियों के मध्यवर्ती भाग में पाई जाती है।

जहाँ सामान्यतः बाढ़ का पानी नही पहुँच पाता है।

इसमे चीका एवं बालू की मात्रा लगभग बराबर होती है साथ ही इसका रंग गहरा होता है।



[C] खादर:-

यह नवीन जलोढ़ मृदा है।

बाढ़ के पानी के लगभग प्रति वर्ष पहुँचते रहने के कारण इस मृदा का नवीनीकरण होता रहता है।

यह मृदा निम्न गंगा मैदान ,ब्रह्मपुत्र घाटी एवं डेल्टाई क्षेत्रों में पाई जाती है।





{2} काली मिट्टी:-

यह मृदा लगभग 5 लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैली है।

यह मृदा मुख्यतः महाराष्ट्र, दक्षिण व पूर्वी गुजरात, पश्चिमी मध्य प्रदेश, उत्तरी कर्नाटक, उत्तरी आंध्र प्रदेश ,उत्तर -पश्चिम तमिलनाडु, दक्षिण - पूर्वी राजस्थान आदि क्षेत्रों में पाई जाती है।

इसे रेगुर के नाम से भी जाना जाता है।

इस मिट्टी का निर्माण लावा पदार्थों के विखण्डन से हुआ है। 

इस मृदा के काले रंग का होने का कारण इसमे कुछ विशिष्ट लक्षणों जैसे लोहा एवं एल्युमिनियम के टीटानीफेरस मैग्नेटाइट यौगिक आदि की उपस्थिति है।

इस मिट्टी की जलधारण करने की क्षमता अधिक है यही कारण है कि यह मिट्टी शुष्क कृषि के लिए अनुकूल है।

यह मिट्टी गीली होने पर काफी चिपचिपी हो जाती है। सूख जाने के बाद सिकुड़ने के कारण इसमे लंबी एवं गहरी दरारें पड़ जाती हैं। इस प्रकार इस मिट्टी की जुताई स्वतः होती है।

इसे लिये इसे स्वतः रेचक मृदा भी कह सकते हैं।

गत 12 नवम्बर 2020 को नेट/जे आर एफ की परीक्षा में इससे सम्बंधित प्रश्न पूछा गया था।






{3} लाल एवं पीली मिट्टी:-

इस मिट्टी का विस्तार लगभग 5.18 लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में पाया जाता है।

इसका निर्माण ग्रेनाइट एवं नीस तथा शिष्ट जैसी रूपान्तरित चट्टानों के विखंडन से हुआ है।

लोहे की ऑक्साइड के उपस्थिति के कारण ही इसका रंग लाल होता है।

इस मिट्टी का रंग कुछ क्षेत्रों में चॉकलेटी व पीला भी देखने को मिलती है।

यह मिट्टी झारखंड के संथाल परगना एवं छोटा नागपुर पठार ,पश्चिम बंगाल के पठारी क्षेत्र , तमिलनाडु, कर्नाटक,दक्षिण पूर्वी महाराष्ट्र, पश्चिमी एवं दक्षिणी आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश एवं छत्तीसगढ़ के अधिकांश भाग, उड़ीसा, उत्तर प्रदेश के झांसी ,ललितपुर, मिर्जापुर आदि जगहों पर पाई जाती है।

इस मिट्टी में नाइट्रोजन, फास्फोरस, एवं ह्यूमस की कमी होती है।





{4} लेटेराइट मिट्टी:-

यह स्थानबद्ध मिट्टी है, जो लगभग 1.26 लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में पाई जाती है।

यह वास्तव में लाल मिट्टी का ही एक विशिष्ट प्रकार है जिसका निर्माण मानसूनी जलवायु की विशिष्टता का परिणाम है।

मानसूनी जलवायु में आर्द्र एवं शुष्क मौसम वैकल्पिक रूप से। पाया जाता है जिसके फलस्वरूप इस मिट्टी का निर्माण होता है।

यह मिट्टी मुख्य रूप से पूर्वी एवं पश्चिमी घाट ,राजमहल की पहाड़ी ,केरल, कर्नाटक के कुछ क्षेत्र उड़ीसा के पठारी क्षेत्र छोटानागपुर के पाट प्रदेश, असम के कुछ क्षेत्र एवं मेघालय के पठार पर पाई जाती है।
इसका सर्वाधिक विस्तार केरल में है।

इस मिट्टी में चूना , नाइट्रोजन, पोटाश, एवं ह्यूमस की कमी होती है।

चूने के कमी के कारण यह मृदा अम्लीय होती है।





{5} पर्वतीय मिट्टी:-

इसे वनीय मिट्टी भी कहा जाता है।

इसका विस्तार 2.85 लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में पाया जाता है।

पर्वतीय ढालो पर विकसित होने के कारण इस मिट्टी की परत पतली होती है।

इस मिट्टी में जीवांश की अधिकता होती है।

इस मिट्टी में पोटाश, फास्फोरस एवं चूने की कमी होती है।

इस मिट्टी की उर्वरा शक्ति कम होती है।

जनजातियों द्वारा झूम कृषि इसी मिट्टी में की जाती है।

यह मिट्टी मुख्यतः हिमालय क्षेत्र, उत्तर पूर्वी भारत के पहाड़ी क्षेत्र,पश्चिमी एवं पूर्वी घाट तथा प्रायद्वीपीय भारत के पहाड़ी क्षेत्रों में पाई जाती है।




{6} मरुस्थलीय मिट्टी:-

इस मिट्टी का भौगोलिक विस्तार 1.42 लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में पाया जाता है।

यह मिट्टी मुख्यतः पश्चिमी राजस्थान, दक्षिणी पंजाब, दक्षिणी हरियाणा, एवं उत्तरी गुजरात मे पाई जाती है।

हाल के वर्षों में मरुस्थल का फैलाव पूर्व की ओर हुआ है एवं दक्षिणी -पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कुछ क्षेत्र भी इससे प्रभावित हुए हैं।

यह वास्तव में बलुई मिट्टी है जिसमे लोहा एवं फास्फोरस पर्याप्त होता है।

परन्तु इसमे नाइट्रोजन एवं ह्यूमस की कमी होती है।

इस मिट्टी में मुख्यतः मोटे अनाज की कृषि की जाती है।





{7} लवणीय या क्षारीय मिट्टी:-

इस मिट्टी को रेह ,ऊसर, या कल्लर के नाम से जाना जाता है।

यह मिट्टी 1 लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में पाई जाती है।

यह मिट्टी छिटपुट रूप से पाई जाती है।

इस मिट्टी का विकास वैसे क्षेत्रों में हुआ है जहाँ जल निकासी की समुचित व्यवस्था का अभाव है।

यह एक अंतः क्षेत्रीय मिट्टी है जिसका विस्तार सभी जलवायु प्रदेशो में पाया जाता है यह मुख्यतः दक्षिणी पंजाब, दक्षिणी हरियाणा, पश्चिमी राजस्थान, गंगा के बाएं किनारे के क्षेत्र, केरल तट , सुंदर वन क्षेत्र सहित वैसे क्षेत्रो में पाई जाती है जहाँ अत्यधिक सिचाई के कारण जल स्तर ऊपर उठ गया है।

यह एक अनुपजाऊ मृदा है तटीय क्षेत्रों में इस मृदा में नारियल एवं तेल ताड़ की कृषि की जाती है।





{8} पीट या जैविक मिट्टी:-

यह मिट्टी लगभग 1 लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में पाई जाती है।

दलदली क्षेत्रो में काफी अधिक मात्रा में जैविक पदार्थों के जमा हो जाने से इस मिट्टी का निर्माण होता है।

इस प्रकार की मिट्टी काली भारी एवं अम्लीय होती है।

केरल में इस प्रकार की मिट्टी में नमक के अंश पाए जाते हैं, इसे यहाँ कारी कहा जाता है।

यह मिट्टी मुख्यतः केरल के अलेपी जिला ,उत्तर प्रदेश के अल्मोड़ा, सुंदर वन डेल्टा एवं अन्य निम्न डेल्टाई क्षेत्रों में पाई जाती है।

इस मृदा में फास्फेट एवं पोटाश की कमी होती है।




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अमित कुमार शुक्ल
Blogger/C.S./G.A.S. प्रयागराज (उत्तर प्रदेश)

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